• गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या मिलेगा

    आजाद भारत में महाराष्ट्र के नागपुर शहर में पहली बार सांप्रदायिक हिंसा की घटना हुई है

    Share:

    facebook
    twitter
    google plus

    आजाद भारत में महाराष्ट्र के नागपुर शहर में पहली बार सांप्रदायिक हिंसा की घटना हुई है। सौ साल पहले 1923 में तत्कालीन सी पी एंड बरार की राजधानी नागपुर में हिंदू-मुस्लिम झगड़े हुए थे, 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यहां स्थापना हुई, मुख्यालय बना और उसके बाद 1927 में फिर यह शहर सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में आया था। लेकिन आजादी के बाद नागपुर में सांप्रदायिक सद्भाव कायम रहा।

    संघ की गतिविधियों के बावजूद इस शहर में अमन-चैन कायम रहा तो इसका बड़ा श्रेय यहां की जनता को दिया जाना चाहिए। लेकिन सोमवार को जिस तरह यहां एक अनावश्यक विवाद और उकसावे के बाद हिंसा भड़क गई, उसे देखकर यह दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि जनता का एक वर्ग अपने विवेक को ताक पर रखकर सांप्रदायिक राजनीति में उलझ गया, जिसमें अंतत: नुकसान उसी का होना है।

    इस हिंसा की पहली जिम्मेदारी सीधे तौर पर राज्य और केंद्र में सत्तारुढ़ भाजपा पर आती है, हालांकि देश और दुनिया की सबसे ताकतवर कही जाने वाली इस पार्टी में जिम्मेदारी उठाने के कोई संस्कार नजर नहीं आते। अलबत्ता एक-दूसरे पर ठीकरा फोड़ने की होड़ यहां लगी रहती है। इसलिए यह उम्मीद करना बेमानी है कि मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस इस हिंसा में अपनी सरकार की नाकामी स्वीकार करेंगे, उनके इस्तीफे का तो सवाल ही नहीं उठता, जिसकी मांग विपक्ष उठा चुका है। नागपुर श्री फड़नवीस का गृहनगर है। उनकी राजनीति की शुरुआत यहीं से हुई। इस बार भी उन्होंने यहीं से चुनाव जीता है। उनके अलावा केन्द्रीय गृह मंत्री नितिन गडकरी भी नागपुर से ही हैं। श्री गडकरी भी नागपुर से ही सांसद बने हैं।

    भाजपा के इन दो कद्दावर नेताओं के रहते यहां किस तरह सांप्रदायिक शक्तियों को सिर उठाने का मौका मिला, यह सवाल तो भाजपा से बना है। दूसरा सवाल यह है कि सोमवार सुबह से ही नागपुर में बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता प्रदर्शन कर रहे थे, तब पुलिस प्रशासन सतर्क क्यों नहीं हुआ। क्या इस महकमे को अहसास नहीं था कि इस तरह की घटनाएं अक्सर किस अंजाम को पहुंचती हैं। तीसरा सवाल, देवेन्द्र फड़नवीस मुख्यमंत्री होने के साथ-साथ गृह मंत्रालय भी संभाल रहे हैं और जब वे उपमुख्यमंत्री थे, तब भी गृहविभाग उनके ही पास था, फिर भी वे इतने बेखबर कैसे रहे कि उनके राज्य और उनके अपने शहर में कौन सी चिंगारी सुलग रही है। या इस चिंगारी को सुलगने और भड़कने देने का इंतजार उन्हें किन्हीं खास वजहों से था।

    खैर, भाजपा या उसकी सरकार इन सवालों के जवाब देने की जगह विपक्ष को ही राजनीति करने का जिम्मेदार ठहरा देगी, इसकी पूरी उम्मीद है। नागपुर के अलावा सोमवार को महाराष्ट्र के कई और शहरों में भी इसी तरह के प्रदर्शन हुए, गनीमत है कि किसी अप्रिय घटना की खबर और कहीं से नहीं आई। फिलहाल एक अहम मुद्दे पर विचार करना जरूरी है कि हिंदूवादी संगठनों को यकायक औरंगजेब की कब्र हटाने का जुनून कैसे सवार हो गया है और इसके लिए कारसेवा का आह्वान कर बाबरी मस्जिद तोड़ने की घटना किस प्रयोजन से याद दिलाई जा रही है? ऐसा नहीं है कि औरंगजेब की आलोचना पहली बार हुई हो। इतिहास के पन्नों में औरंगजेब को एक क्रूर शासक के तौर पर ही दर्ज किया गया है। लेकिन उस क्रूरता को वर्तमान में हिंसा और नफरत कायम करने की मूर्खता अभी की जा रही है। हाल ही में विक्की कौशल अभिनीत फिल्म छावा के आने के बाद औरंगजेब पर विवाद और गहराया। इस फिल्म में शिवाजी के बेटे संभाजी की वीरता को दिखाना उद्देश्य था, लेकिन धर्म के उन्माद में डूबी जनता ने इसमें औरंगजेब के क्रूर चरित्र पर ज्यादा गौर फरमाया। रही-सही कसर बेतुकी राजनैतिक बयानबाजियों ने पूरी कर दी।

    इस पूरे प्रकरण की कड़ी से कड़ी मिलाएं तो नजर आएगा कि जो कुछ भी कहा गया, आरोप-प्रत्यारोप लगाए गए, ऐतिहासिक घटनाओं का मनमाना विश्लेषण हुआ, वह सब अनायास नहीं है, बल्कि एक चाल चलकर आगे की चार चालों का हिसाब लगाकर सारा खेल रचा गया। सपा सांसद अबू आजमी ने औरंगजेब के बारे में कहा था कि छत्रपति संभाजी महाराज और औरंगजेब के बीच धार्मिक नहीं बल्कि सत्ता और संपत्ति के लिए लड़ाई थी। अगर कोई कहता है कि यह लड़ाई हिंदू और मुसलमान को लेकर थी, तो मैं इस पर विश्वास नहीं करता। इस बयान पर महाराष्ट्र में विवाद खड़ा हुआ, तो श्री आजमी को विधानसभा के बजट सत्र से निलंबित कर दिया गया। उन्होंने सफाई भी दी कि उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया गया। लेकिन तब तक लाड़ली बहना योजना, भ्रष्टाचार, महिला सुरक्षा जैसे अनेक मुद्दों पर घिरी फड़नवीस सरकार को एक नया मुद्दा मिल गया और इसे भाजपा ने भी फौरन लपक लिया। महाराष्ट्र के विवाद की आग जल्द ही देश के दूसरे हिस्सों में फैल गई और एकदम से हिंदूवादी संगठनों को औरंगजेब की कब्र हटाने का ख्याल आ गया। खुद मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस ने कहा था कि पुरातात्विक संरक्षित स्मारक होने के कारण वे इसे हटा नहीं सकते। किसी ने औरंगजेब की कब्र को शौचालय बनाने कहा, किसी ने अरब सागर में फेंकने का सुझाव दिया। अब एक भाजपा नेता ने कहा है कि इस पर थूकने की इजाज़त दी जाए, तो इससे महाराष्ट्र में पर्यटन बढ़ेगा।

    इस किस्म की बातों से भाजपा की इतिहास की समझ और नजरिए दोनों का अंदाज लगाया जा सकता है। औरंगजेब की कब्र अब कब तक कायम रहेगी या नहीं रहेगी, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन ऐसी बातों में उलझने वालों को विचार करना चाहिए कि इससे वर्तमान की समस्याएं क्या हल हो जाएंगी। लोगों के पास रोजगार नहीं है, 80 करोड़ लोग अपने आत्मसम्मान की कीमत पर पांच किलो राशन लेने के लिए कतारों में खड़े होते हैं, हमारे नागरिकों को अमेरिका जंजीरों में कैद करके वापस भेज रहा है, नोटबंदी का हिसाब अभी दिया नहीं गया है, कोरोना काल से अकाल मौतों का सिलसिला अब तक नहीं थमा है। क्या भूतकाल के गड़े मुर्दे उखाड़ने से वर्तमान और भविष्य सुधरेगा, कदापि नहीं। इसलिए हिंदुस्तान की जनता अपने चिर-परिचित विवेक का इस्तेमाल करे और भड़काने वालों को करारा जवाब दे।

    Share:

    facebook
    twitter
    google plus

बड़ी ख़बरें

अपनी राय दें